Saturday, January 18, 2014

प्रेम

प्रेम !!!    इसकी कोई परिभाषा है क्या ???   कोई मान दंड ???      कोई रूप रेखा बना के क्या प्यार किया जा सकता है ?   कितने सवाल  दिमाग मैं आतें हैं   . … …पर , प्रेम  तो प्रेम है   …।और वो है तो है !!!!

जीवन के इन रास्तों पे चलते- चलते न जाने कितनी बार  इस प्रेम कि अनुभूति हुई।  प्रेम कि बात करें तो सिर्फ एक पुरुष और स्त्री के बीच मैं होने वाला केमिकल लोचा  .... ख्याल यही आता है   . हालाँकि प्रेम तो हर रूप मैं , हर रिश्ते मैं मौजूद है।

प्रेम उस से भी था जो तब मिला जब शायद समझ ही नहीं थी कि प्रेम क्या बला है  .... पर तब लगा था कि उस से सुन्दर , उस से बेहतर कुछ भी नहीं  .....सारी इंद्रियां बस  उस पर ही केंद्रित थीं। सारे रिश्ते बस एक उस रिश्ते ने भुला दिए हों जैसे  … जैसे वो मेरे साथ ही चलता हो हर पल.……।

 वक़्त गुजरा !!!!   और   …और वो  रिश्ता भी गुज़र गया  ……जीवन कि सच्चाइयों से जब मुलाकात होने लगी तो वो पीछे छूट  गया हमारा वो सरल , सादा  सा इस्क़ या प्रेम। .... आज तक वो पलट के नहीं आया........ पर , प्रेम तो वो भी था दोस्त  !!!!

शुरू  हुई जीवन कि आपा धापी और फिर एक बार हमें उस प्रेम के अनुभूति हुई। लगता था हमको कि हम समझदार हो गए पर  गलत थी ये धारणा  ....... समाज के लिए , अपनों के लिए बेशक बुद्धीमान हो गए थे हम  ……प्रेम के लिए वही बेवकूफ  …… न जाने कितनी बेवकूफियां कि हमने प्रेम मैं  …। उसका हाथ थाम दुनिया से लड़ने चले  …।  दुनिया मेरी दुनिया बस उसमें ही सिमट के रह गयी  ....  वो था तो  ... मेरा अस्तित्व था।   खुद को.…… खुद के अस्तित्व को भुला देना बस प्रेम मैं ही सम्भव है मेरे दोस्त !!!!!

 धीरे- धीरे प्रेम बदलता गया उसकी कशिश पीछे छूटती चली गयी  ……प्रेम तो था.....  पर अब जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा.… सहमा  बुझा बुझा सा। सब कुछ यंत्रचालित सा हो गया …।   यहाँ तक चेहरे पे आने वाली मुस्कान भी। .

फिर अचानक एक दिन फिर से वो सब कुछ महसूस होने लगा किसी अजनबी  के लिए  .... आँखें उसको ढूढ़ने लगी  …… उसकी नज़रों कि ताब  से पिघलने सी लगी।  उसको सामने पा दिल जोर से धड़कने लगा। …। और फिर से प्रेम हो गया  …… अब उसको देखते ही सब कुछ भूलने लगी पर अपनी जिम्मेदारी को नहीं। अब दिल पे दिमाग हावी था  …। नहीं !!!! नहीं!!!  ठक -ठक  …।   पर प्रेम तो प्रेम था। …  होना था तो हुआ। … अब उसे पाना, पर हिस्सों में !!!  मंज़ूर हो गया  ...    क्योंकि प्रेम न करना बस में नहीं था !!!!

हसरतें वही थीं , चाहतें भी वही थीं , कसक भी वही  थी  .... बस वक़्त वो नहीं था  … उम्र वो नहीं थी  … पर मित्र !!!!   प्रेम वही  था। ……

प्रेम निरंतर बहता रहा  …… मेरे अंदर  …… !!!!!   बस कभी उसे बाँध लिया ...... कभी उसे छुपा लिया। …  कभी अपने लिए!!  कभी अपनो  के  लिए !!!!  प्रेम का निभाने  कि कला अलग थी हर उम्र में  … अहसास वही था !!!  कसक वही थी।

प्रेम करना एक कला है  .... ये एक अनुभूति  है  इसे महसूस करो   …ये निरंतर  बहने वाला दरिया  है  .... ये प्रेम का दरिया  यू  ही बहता   रहे   !!!!    हर एक दिल में  …। आमीन  !!!!!






2 comments:

  1. बहुत सुन्दर मीना जी! आपके ब्लॉग में आने सौभाग्य प्राप्त हुआ और सच मानिये हमें बहुत ख़ुशी हुई पढ़कर ! प्यार/ प्रेम के बिलकुल सीधे-सच्चे रूप का वर्णन किया आपने !
    आपकी इस रचना को पढ़कर हमारे दिल में कुछ ऐसे ख़याल आए जो हम आपसे Share कर रहे हैं- हर इंसान के भीतर झर -झर करता एक प्रेम का झरना होता है, बहने को आतुर नेह की बूँदें होती हैं... जो मचलती हुई सदायें देती हुई पहुँच जाती हैं ...ख़ुद-ब-ख़ुद अपने हिस्से की ज़मीन पर .... और भिगोती रहती हैं उसे, अपने प्रेम से... जब तक उनका अस्तित्व रहता है .... बिना रुके, बिना सोचे, बिना जताए, बिना कुछ माँगे … ~ प्रेम की अनुभूति इतनी सुखद होती है … कि उसे शब्दों में बयाँ करना, बाँधना बहुत ही मुश्किल है, उसी तरह … जिस तरह पानी पर प्यार लिखना !
    प्रेम की ख़ूबसूरती भी तभी है जब इसे महसूस किया जाए, आँखों की ज़बानी सुना जाए ! और सच कहा जाए तो प्रेम की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती, उसका गुण... उसकी मासूमियत में है .... किसी भी छल-कपट, लाग-लपेट से कोसों दूर .... प्यार का निश्छल, निर्मल झरना 'प्रेम' :-)

    ~सादर
    अनिता ललित

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    1. shukriya Anita ... aapke shabdon ne kuchh josh bhar diya ... . mai jo mahsoos karti hoon waise hee likhna chahti hoon .... padhne wala us se jude ....yahi chahti hoon ...eek bar or shukriya padhne ke liye mere likhe huai ko ...umeed karti hoon ye safar bana rahega ..

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