Thursday, August 13, 2015

खुली खिड़की से पेड़ों की शाखों पे
गिरती हुई बूंदों को निहारना
और ख्यालों  में जाने कितने पल जी जाना

Friday, June 5, 2015

मौत

अपना रंगीन कफ़न ओढे
खुद को सज़ा,
अपने  ही  कंधों पे  ढो 
जाने कितनी बार
 दफ़न करते है खुद को !
पर इस मौत,
 कोई ज़िक्र नहीं होता !
और ये सिलसिला भी
 खत्म नहीं होता  
सूरज  के साथ उग  आंतें 
हर रोज़ कुकुरमुत्तों की तरह 
नागफनी के ये कांटें 
रूह को लहू  लुहान करने के लिए 
लहू रिसता रहता है 
और किसी को नज़र  भी  नहीं आता 
घर की इस चार दिवारी में भी 
जाने कितनी मौतें होती हैं मित्र 
अफ़सोस !!!!!
 उनका कोई ज़िक्र ही नहीं होता !
क़त्ल  करते हैँ वो ,
 रिश्तों की दुहाई देने वाले 
जिनका रिश्तों से ,
 कोई वास्ता नहीं होता !