Friday, November 25, 2011

सफ़र

कभी कभी   कुछ इत्तेफ़ाक इतने हसीन होते है की  वो हमारे ज़िन्दगी मे हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़  जातेहै  उन  पलों  की याद हमारे सीने मे कही दफ़न हो जाती है . दफ़न नहीं शायद एक बीज की तरह मन के किसी कोने मे वो छुप के बैठ जाते हैं ..जैसे ही उसके मन माफिक मौसम आया वो झट से अंकुर के रूप मे जनम ले लेते  है . धीरे- धीरे एक नन्हा सा बीज एक हरे भरे वृक्ष की तरह लह लहाने लगता मन के किसी कोने मे.....

इन्सान  अपनी फितरत नहीं छोड़ सकता .चाँद अपनी चांदनी नहीं ...दिया अपनी रौशनी नहीं  तो मैं क्यों ?वही बहती हवाओं के साथ बहना ...गुनगुनाना ..वो बेफिक्र चिड़ियों की तरह चह-चहाना..... वर्षो बाद जब फिर से हम मिले तो लगा ही नहीं की  इतने वर्षों  का अन्तराल ....समय जैसे रुक गया हो  , यक़ीनन  हमारे चेहरों पर वो तरुनाई नहीं रही ..पर बचपना फिर से लौट आया..

दिल्ली से बहुत दूर एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा .... वहां मेरा जनम तो नहीं हुआ  पर ७-८ साल की उम्र से हम वहां रहने लगे ... बहुत कुछ बदल गया था जिन्दगी मे हम सबकी . तितली की तरह इधर  उधर भटकने वाली प्यारी सी भोली सी लड़की एकदम खामोश हो गयी थी.वो जिधर  भी जाती लोग उसे उस खोये हुए का... अहसास करवाते .....और उसने अपने चारों  और एक किले का निर्माण कर लिया धीरे -धीरे ... वो दया के भाव से देखती आँखे उसे नींद मे भी डराने लगी थी .गुलाबी रंग वाली वो सुनहरे और घुघराले बालो वाली वो छोटी सी लड़की जिधर  से भी गुजरती लोग उसे जरूर देखते  और वो उन सब की नज़रों से छुप जाना चाहती .   ऊँचे-  नीचे   पहाड़ी रास्तों पे कभी गिरती , कभी डगमगाती वो स्कूल  से घर तक का सफ़र मुश्किल  से तय करती ...लहूलुहान घुटनों को कभी सहलाती और  कभी छिली हुई हथेलियों को देखती .......

वक़्त का पहिया घूमता रहा ..हालत ने मौका ही नहीं दिया की ज्यादा कुछ सोच पाए अपनी इस वक़्त के बारे मे . बचपन की शरारतो के आगे सब कुछ भूलने लगा .. रह गया सिर्फ वो पल जिस मे जी रहे थे  ना  भूत ना  भविष्य . धीरे धीरे बचपन भी साथ छोड़ने लगा ..वो गिल्ली डंडा खेलना , भाई के साथ कंचे  खेलना ..सब छूटने लगा .... फिर रातों को चाँद  तारों को देखना , हवा के रुख को भापं  जाना , बहती नदी का शोर , गुलशन नंदा के उपन्यास  सब अच्छे  लगने लगे ..... जब ठंडी हवा बहती तो घर पे बंद कमरों मे रहना बिलकुल नहीं  भाता मुझे .... जाने मुझे क्यों लगता था हर चीज़  मुझे बुला रही हो .... नदी का किनारा हो या दूर गिरते हुए झरने ...प्रकृति
की एक - एक शय मुझे अपने पास बुलाती ....और मैं !!! हर शय को छू लेना चाहती थी ..महसूस करना चाहती थी ... शायद आज भी ...

आडू के गुलाबी फूल ....ओह्ह्ह्हह्ह  खुबानी के सफ़ेद फूल .. जक्रेंदा के हलके जामुनि फूल,   पत्ते कम और फूलों से लदे हुए पेड़... आज भी मेरी कमजोरी हैं ...हलकी सर्दी मे दूधिया चांदनी मे नहाये हुए ये पेड़ और दूर  सामने चीड के पेड़ों के पीछे से झांकता हुआ चाँद ... चाँद  की रौशनी मे  सारा क़स्बा सोया हुआ ... कभी कभी कुत्तों की भोंकने की आवाज़ .. पहाड़ी की चोटी पे बना मेरा घर .जिस से नीचे बसा पूरा शहर नज़र आता ... नीचे घाटी मे बहती अलकनंदा का शोर.. . रात की नीरवता मे और भी मुखर हो जाता .... और मैं शाल मे खुद को लपेटे रेलिंग का सहारा लिए घंटो दूर दूर तक बहती नदी ... दूर पहाड़ियों  पे नज़र आते हुई चीड के पेड़ों की कतार ...कही कही टिमटिमाते रौशनी के दिए ...और इन सबसे खूबसूरत चांदनी मे भीगे हुए त्रिशूल की हिमाच्छादित  चोटियों को देख -देख  अपनी ही बनायीं हुई एक नयी दुनिया मे विचरण करती .........वो सब पल आज भी मेरे अन्दर जीवित हैं ....कभी कभी लगता है मै आज भी उस वक़्त मै जी रही हूँ...

कितना खूबसूरत वक़्त था  वो ...जब मैं और सिर्फ मैं ....हवाओं मे घुल मिल जाते ..परिंदों के परों पे चढ़ ख्वाबों  की दुनिया की सैर करते ...  फिर धीरे धीरे मेरे ख्वाबों की दुनिया बढती गयी और जिसमे मेरे सपनों के राजकुमार का आगमन होने लगा और मैं खुद से ही शर्माने लगी ... मुझे हर खूबसूरत चीज़  और भी खूबसूरत लगने लगी ... हर आह्ट पे  मैं चोंकने लगी .हर वक़्त एक खूबसूरत इंतज़ार ......

आज कई सालों बाद लगता है मैं आज भी वही खड़ी हूँ ......आज भी मैं छत की मुंडेर के सहारे  खड़े हो जब शाम को कबूतरों के झुण्ड को एक साथ उड़ते हुई देखती हूँ तो..... लगता है  आज भी उनके पंखों पे चढ़ खुले आसमां मे पींगें  भरती हूँ ....स्थान बदल गया , रूप रंग  भी बदल गया पर मेरे अन्दर की वो मासूम सी,  भोली सी हर बात पे खिलखिलाती सी  बच्ची आज भी वही है ...







Wednesday, October 12, 2011

रात के हमसफ़र

सपने कितने अजीब होते हैं ...कई बार तो  जहन से वो निकलते ही नहीं ...पीछा करते रहते है . मै उनमें उलझी उन अनजानी , अबूझ बातों को सुलझाने कि कोशिश करती रहती हूँ . आज सुबह भी इसी अहसास के साथ उठी ....ना जाने ऐसा की छुपा था उस सपने में...बहुत दिन हुई कुछ ऐसे सपने देखे जिन्होंने मुझे आने वाले पलों का अहसास करवाया था .. आज जो देखा क्या वो हो सकता है ??? पर ऐसा क्यों होगा ? कैसे होगा ?
   शरद पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ मेरी खिड़की पे आके बैठ गया....... मेरा वो बड़ा सा कमरा जिसमे जरूरत कि हर चीज़  करीने से लगी ... ज्यादा सामान नहीं ...मुझे खाली खाली सा कमरा अच्छा लगता है ... खिड़की से झांकता चाँद मेरे पूरे कमरे मे अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है ....मुझे उसके साथ बातें करना बहुत अच्छा लगता है .... वो बातें जिन्हें कोई सुन नहीं सकता ...बरसों से बस हम दोनों कि गुप चुप चलती बातों का सिलसिला निरंतर बहता ही रहता है .... कभी कभी ऐसा भी हुआ कि मै वो मेरे पास आया पर मै उसे समय  ही नहीं दे पाई .. वो मुझसे नाराज़ नहीं हुआ कभी भी ... कभी दरख्तों के नीचे छनती हुई चांदनी मे सूखे हुई पत्तों के ढेर पे बैठकर ना जाने कितनी बाते करती रही मै... कभी सर्द मौसम में,खुद को गर्म कपड़ों में लपेट बाहर कुर्सी या बरामदे कि सीढ़ियों पे , पिलर पे पीठ टिकाये घंटो प्रकृति को निहारते ....समय का पता ही नहीं चलता ... जब वो मेरी मुडेर पे आके मुझे आवाज़ देता तो लगता है  बस अब कोई भी मुझे आवाज़ ना दे .... रात को पेड़ कि शाख पे बैठा वो मुझे चिढाता है ..जी करता है हाथ बढा उसे मुट्ठी मै कैद कर लूं...

  कल रात भी  वो  मेरे कमरे कि खिड़की पे आके बैठ गया ... उसकी दूधिया चांदनी में....  सब कुछ निखर गया .... एक अजीब सी मदहोशी छाने लगी ..मेरे कमरे कि हर चीज़ उसके स्पर्श से नव योवना कि तरह निखर गयी . . ..मै दिन भर के उबाऊ कामों से निपट ... उबाऊ तो शायद इतने नहीं जितने कि रोज़ रोज़ वही करने से नीरस हो गए ...वही चेहरे , वही बाते, वही शिकवे शिकायतें ... वही मेरा उनको देखना , सुन ना , चेहरे पे मुस्कान लाकर दिमाग का वही फिर से सोचना क्यों ????? मेरे अभयस्त हाथों से हर जरूरी काम का होना ...फिर  वही नीरसता ... ...
  कमरे का दरवाज़ा बंद कर मै अपने बिस्तर पे आ लेटती हूँ .... आँखों को बंद कर उसे महसूस करती हूँ ....उसकी कोमल किरणे मेरे हर अंग को स्पर्श करती है और मुझे मदहोशी छाने लगती है ..लगता है जैसे प्रियतम ने छू लिया हो ...मै सपने देखती हूँ खुली आँखों से ...कभी देखती हूँ चांदनी रात मे , मै और वो किसी समुन्दर के किनारे रेत मे नंगे पाँव चल कदमी कर रहें है .. लहरें बार बार आकर हमें छू जाती है और हम एक दूसरे मे खोये से ... समय बीत ता जाता है , कभी छत पे सफ़ेद चादरों मे लिपटे हुए एक दूसरे कि बाहों मे खोये हुए से ...   ना जाने कब नींद  के आगोश मे समां जाती हूँ .... अचानक लगता है कुछ  अजीब सा अहसास है ..मै जानने कि कोशिश करती हूँ ...
 लगता है मेरी कोख मेचाँद का एक कतरा है .... नहीं पर ऐसा कैसे हो सकता है ???? नहीं !!! हो ही नहीं सकता ..पर कुछ तो है... ओह  अब क्या होगा ??? शायद कभी मैंने उसे इस रूप मे चाहा  हो कि उसका एक अंश मेरी कोख मे भी हो ... पर अब ????ठक्क! ठक्क !   कैसे ??? ठक्क ! ठक्क ! ये मैंने क्या कर दिया ??? ठक्क... ठक्क .. पर कैसे  हो सकता है ??? ठक्क ! ठक्क ! दिमाग पे  ठक्क ! !!!
सिर भारी हो गया . सांस रुकने लगी .. आँख खुल गयी .... देखा कमरे मे अब चांदनी नहीं थी .. खिड़की के बाहर रौशनी नज़र आ रही थी ..पानी के कुछ घूँट  पी ... धीमे धीमे क़दमों  से चल खिड़की तक आई अपने प्रियतम को विदा करने ... दूर आसमान पे वो अब भी चमक रहा था ... कुछ उदास ...उसकी चमक धूमिल सी हो गयी थी ... थकी थकी आँखों से मै उसे कुछ पल निहारती रही ... हम दोनों को ही जैसे एक ही दर्द था ..... हम दोनों ही इस सफ़र मे अकेले ही थे ..... हमें अपने प्रियतम कि तलाश जो थी ...हम दोनों हमसफ़र जो थे  रात भर के .....
  रात के हमसफ़र

Saturday, September 17, 2011

स्वपन जो मैंने देखा

स्वपन जो मैंने देखा ????? .....सोचती हूँ कभी देखा भी है मैंने .. या कभी सोचा भी देखने के बारे मे ..... शायद सोचा हो .अब तो याद भी नहीं ... आपने आज पूछा तो मुझे सोचने पे मजबूर कर दिया .....मै  एक औरत हूँ ! तो क्या मै  सच मे सपने देख सकती हूँ  ? ....मै  औरत हूँ इस बात का अहसास  तो मुझे जनम  से ही करा दिया गया ...जो समय के साथ साथ और भी तीव्रतर होता गया .... कई बार सोचती हूँ  पितामह भीष्म की तरह शायद मे भी अभिशापित हूँ ... तभी तो एक बालिका के रूप मे मेरा जनम हुआ ... 

आज सोचने लगी तो पूरा जीवन एक चलचित्र की तरह मेरे आँखों के आगे आ गया ..... मुझे याद नहीं मेरे जनम पे किसी ने दुख व्यक्त किया या ख़ुशी !!!  याद है माँ के साथ अपने छोटे छोटे हाथों से घर के कामों में  हाथ बटाती ..और दिन में कई बार माँ के मुह से सुनती, " बेटा तू तो पराया धन है... कल तुझे दूसरे घर जाना है ...वहां हमारी लाज रखना ....और भी ना जाने क्या क्या ...." माँ ने मुझे बचपन से ही पराया कर दिया ! 

ससुराल ! ससुराल ! दिन मै कई बार इस शब्द को सुनती और सोचती ससुराल  कितनी भयानक होती है, तो मुझे वहां जाना ही क्यों ? माँ- बापू मुझे वहां क्यों भेजना चाहते है ?क्यों हर लड़की को ससुराल  जाना पड़ता है ? और भी ना जाने कितने मासूम से सवाल मेरे जहन  मै उठते.....कुछ का जबाब तो माँ दे देती और कुछ पे झिड़क देती .... "मुझे हर काम सलीके से करना है ... ज्यादा हँसना नहीं है ..ज्यादा  बोलना नहीं ..कपड़े  ऐसे पहनो ... ऐसे बैठो , ऐसे उठो ..बड़ो से कुछ नहीं कहना सिर्फ सुन ना है .. जो कहे वो करना है  और भी ना जाने क्या क्या ..... भले घर की लड़कियां ये नहीं करती ...वो नहीं करती .. ओफ्फ्फ्फ़!!!!!   द्रोपदी के चीर की तरह ये सिलसिला  बढता ही गया..  पर मुझे तो श्री कृष्ण   भी बचाने   नहीं आये  !!!" आज आपने पूछा तो ख्याल आया की मै शायद सपने देखना ही नहीं चाहती थी, कोई इतने भयानक सपने क्यों देखे भला ??? सपने तो सुन्दर होते हैं  ना !!!!

समय का पहिया घूमता  रहा और मै भी बड़ी हो गयी घर के कामों को सलीके से करने लगी ... आस पास के लोग मेरी सुघड़ता के कायल थे पर माँ ....उसे कुछ ना कुछ  कमी नज़र आ ही जाती . एक दिन वो दिन भी आ गया जिस दिन के लिए मुझे पाला पोषा गया था ... पराया धन ... अपने घर जाना था मुझे ... आज याद नहीं पर ... मै कुछ पल लिए खुश जरूर हुई होंगी ...क्योकि सब होते है ! पर अन्दर का वो डर मुझ पे हावी होने लगता ... माँ बापू को देखती ..उनके चेहरे पे अनजानी सी लकीरें खिची नज़र आती मुझे .माँ का वो मेरे चेहरे को देखना और प्यार से सिर पे हाथ फेरना... बापू का भी यही हाल .. ये सब तो मैंने कभी देखा ही  नहीं था  , मुझे बहुत   ही अजीब  लगता... .  बलि  के लिए जो बकरा रखा जाता है उसकी याद आने लगती , उसे भी तो खूब खिलाया पिलाया जाता है ...फिर खूब फूल माला से सजाया जाता है ! मुझे अपनी भी वही स्थिति  लगती  भला कैसे कोई सपने देखता ???

ऐसा नहीं की कभी कोई सपना चुपके से मेरे  अंतर्मन  की सीमा नहीं लांघता ...पर मै जल्दी से उसे  भगा  देती क्योकि मै एक औरत हूँ और सपने देखने का मुझे कोई अधिकार नहीं .. ये बात मैंने अपने माँ से भलीभांति समझी  हुई थी ... मै एक भले घर की लड़की हूँ और भले घर कीलड़कियां  सपने नहीं देखती ... वो तो सलीके से रहती है एक बेज़ुबान  कठपुतली की तरह ....

ज़िन्दगी का दूसरा पड़ाव  डरते सहमते मैंने उसमे कदम रखा ....वहां भी कोई सपना नहीं देख पाई ..घर गृहस्थी   की चक्की मै ऐसा पिसी  की अपनी भी सुध नहीं रही ... कब सुबह हुई कब शाम .. और कब रात ..ये सब तो मुझे याद रहता,  पर मै भी हूँ ये कभी  याद ही नहीं रह   पाया ... आज सोचती हूँ अच्छा ही था याद नहीं रहा ... वरना एक और दुःख पाल  लेती ... वैसे मै इस सुख दुःख की सीमाओं से ऊपर उठ चुकी ... ये सब तो मुझे महसूस करने का कभी किसी ने हक ही नहीं दिया ..और मै  कभी ले भी   नहीं  पाई ... जब भी सोचने की जरूरत की ...सबने ये कह समझा दिया तुम सोचा मत करो, काम करो ..तुम्हें  चाहिए क्या ??? सब कुछ तो तुम्हें  मिल रहा है .. एक औरत को और क्या चाहिए ???

आज मैंने हिम्मत कर कुछ सोचने  की जरूरत की तो मालूम हुआ की मै सोच भी सकती हूँ ... मेरे भी कुछ सवाल हैं ज़िन्दगी से ...और  खुद से भी !!  मै देख सकती हूँ  अपनी नज़र से आज ये  महसूस हुआ .... मुझे तो आज तक वही नज़र आया जो और लोगो ने मुझे दिखाया.... गन्दा घर , झूठे बर्तन , गंदे कपड़े ,गन्दा सहन ,मकड़ी  के जाले..... मेरे    का मकड़जाल   तो ना किसी ने देखा और ना देखने की कोशिश  ही करी ..और मै  !  जो मुझे दिखाते रहें मै अन्धो की तरह देखती रही उनकी नज़र से .. ऐसा नहीं की मेरे सामने फूल नहीं खिले ....पत्ते नहीं झरे ..आम नहीं बोराए ...मेघ नहीं छाये ..सब कुछ  होता रहा पर मै ही उसको नकारती रही .... आज सोचा तो लगा की मुझे रजनीगंधा बहुत अच्छे लगते हैं उनकी खुशबू .... अरे मुझे तो आज तक पता ही नहीं था .....मुझे सुगम संगीत भी पसंद है ..... मुझे चांदनी राते भी अच्छी लगती है .........चाँद तो कई बार देखा मैंने  पर उसकी ख़ूबसूरती को महसूस नहीं किया ...उसकी चांदनी मे नहाई , निखरी परकृति को आज जैसे पहली बार मेरे अंतर्मन ने करीब से महसूस किया हो ....

मै अपने नाजुक से कंधो पे दो परिवारों की मान मर्यादा का बोझ के तले पिसती रही और मेरी एक उम्र गुज़र गयी ...और मुझे अहसास भी नहीं हुआ .सोचती हूँ तो लगता है माँ ने जिस घर के लिए पराया किया था क्या वो वाकई मेरा है ???? वो सबका है सिवाय मेरे ... मेरे हिस्से में   तो जिम्मेदारियां ही हैं उसके बदले रोटी कपड़ा और मकान .. सीधा सा हिसाब किताब .....

शीशे के आगे जाके खुद को देखा तो लगा आज बरसों से ज़मी  हुई गर्द  को साफ़ करने का वक़्त आ गया ......पर सपना देखना अब भी मेरे बस मै नहीं .....एक अहम् सवाल मेरे आगे आ खड़ा हुआ की सपना किसका देखूं ????

अपने होने पे मुझे पहली बार अफ़सोस हुआ ......मैंने अपने चारों और जो संसार रचा हुआ है उसमे मेरी क्या और कितनी अहमियत है ??? ये प्रश्न आज मेरे सामने पहली बार आया ? मुझे पहली बार ये अहसास हुआ की मेरे चारों और एक मृग मरीचिका है और मै उसको सत्य समझ अपने ही भरम मै जी रही हूँ..... इतना आसन नहीं खुद को वर्षों के पाले हुई भरम से बाहर निकलना मै ये जानती हूँ पर अब तक तो भरम का ही पता नहीं था ....

सोचती हूँ .....ये शुभ काम उम्र के इस पड़ाव मै ही कर डालूँ ... कहते है ना जब जागो तभी सवेरा .... तो मै स्वपन  देखना शुरू करती हूँ .... जागी आँखों के साथ .... यही मेरा सपना है आज से की मै भी सपने देखूँगी अपने अस्तित्व को जानने  का ...खुद को पहचानने का . इस सफर मे मै कितना कामयाब हो पाऊंगी मै नहीं जानती मगर मै इतना जानती हूँ कि अब मै अपने बढे हुई कदम पीछे नहीं करूंगी और सपने देखना नहीं छोडूंगी ........

Saturday, July 16, 2011

स्याह अँधेरी रात में,
तमाम उम्र ..
.मैं जुगनुओं से 
राह रोशन करती रही ...
अजनबी के इंतज़ार में
राही तो कोई नहीं गुजरा 
फिर क्यों ???? 
अनदेखे कदमों की आहट सुनाई देती है ....

Friday, May 6, 2011

ख्वाहिशों के परिंदे

सपनों की उड़ान
भरने चला मेरा मन ....
परिदों के पर लिए
अनजान डगर
 कुछ सहमा सा
 कुछ झिझका सा
चाँद तारों को छूने
चला मेरा मन......



धूप की कटोरी से
उबटन लगा
 हरसिंगार के फूलों का ...
श्रृंगार  कर
ज़िन्दगी का  लिबास पहन
ज़िन्दगी से मिलने चला
 मेरा मन .....
ख्वाहिशों  के परिंदे सा ...
 मेरा मन ....!!!!

Friday, April 22, 2011

ख़ामोशी

जाने कौन था वो ? जाने किसने दी सदा ? ...
दूर -दूर तक ख़ामोशी  बिखरी पड़ी थी .....
शायद .......मैं ही थी.....!  वो !!
खुद को आवाज़ दे .... ख़ामोशी तोड़ रही थी ...
ख़ामोशी की  एक जबान होती है !
हर सन्नाटा कुछ शोर करता है !
सुना करते थे हम
 आज महसूस करते है ....
बाहर बहुत शोर है
अन्दर ख़ामोशी पसरी पड़ी है
खिड़की से झांकता चाँद...
न जाने कितनी बाते करता है मुझसे ....
 हर लहर कहानी सुना जाती है मुझको
छत की मुंडेर पे बैठे परिंदे
अभिवादन करते है मेरा ..
मुझसे सुबह का सूरज अलसाया सा मिलता है
मंद मंद  चलने वाली बयार ..
प्रियतम की तरह मिलती है मुझसे ...
फिर भी ख़ामोशी ......
 तपती जेठ  की दुपहरी सी खामोश ..





Tuesday, March 8, 2011


कुछ तारों की बारात   चली है 
चाँद अकेला ......

बादलों के  झुरमुट के साथ 
खिलवाड़ करता हुआ .......
 खुले आसमान के नीचे ...
 मैंने ज़िंदगी के नाम .
एक जाम उठाया ...!

धीरे- धीरे रात सरक रही है ..
 न जाने कितने वाकयात  लिए ...
 न जाने कितने पल ..

और  मैं !!!

 जिन्दंगी को लपेटती रही ...
सामने  रखी शमा जलती रही 
 वो सामने बैठा, कुछ कहता रहा ....
मैं  सामने बैठी, कुछ सुनती रही .....

आज कोई कड़वाहट 
छू के नहीं गयी ...
शायद !
 जाम के साथ वो भी पी गयी 

मद्धम चांदनी मे भीगे हम दोनों 
 साथ बिताये पच्चीस सालों के नाम 
एक दूसरे का शुक्रिया अदा करते रहे .
आने वाले वर्षों मे ,
साथ रहने का सपना बुनते रहे 

जाने क्यों आज ...?  
फिर से उसने ....
मुझे क्यों चुन लिया ?

नदी के किनारे की तरह 
हम साथ-साथ  चलते रहे .
ज़िक्र था कई साल का ..
पानियों की तरह बहते रहे ..

 आज ,  कोई शिकवा नहीं रहा .
मुझे ज़िंदगी से  !
आज कोई गिला नहीं  रहा ...

रात तारों की बारात लिए .
फूलों की सौगात लिए 
अपने प्रियतम से मिलने चली 
कुछ तारों की बारात चली ....

Monday, February 7, 2011

स्वागतहै ऋतुराज का !!!

कल बसंत पंचमी है .... गतिशीलता ,सरलता और नवजीवन  का पर्याय है बसंत !  बसंत का अर्थ है बहार  का मौसम....शिशिर (पतझर ) के बाद नवीनता और  जीवन की दस्तक लिए चला आता है बसंत !..धरती पीले रंग की ओढनी ओढ़ ..... रंग बिरंगी साड़ी पहन  ..... सोलह श्रींगार कर .....जीवन के लय पे थिरकती हुई सी दिखती है ......चारों और नव कोंपलें  अपना सिर बाहर निकाल मानो  अपने होने का अहसास कराती  है...... वो लाल -लाल अंगारों से दहकते टेसू के फूल , सेमल के फूल ...बिना पत्तों वाली शाखों  पे ...कुछ   धरती पे बिखरे .... आड़ू के गुलाबी से फूल , खुबानी और चेरी  के दुधिया फूल ...इनसे सजे बाग़ बगीचे, रास्ते..... पीले - पीले सरसों के फूलों से सजे खेत खलिहान ....वो  मंद -मंद बहती हुई   बसंती बयार  ......

जब हम बच्चे थे तो बसंत पंचमी  के दिन पीले रंग के वस्त्र  पहने जाते थे ... कुछ रुमाल , कुछ टोपियाँ  पीले रंग मे रंग दी जाती थी और बच्चों को पहना दी जाती थी ...बच्चो का मुंडन करना हो या विवाह के बंधन मे बंधना हो .. बसंत पंचमी का दिन !
पीला रंग चैतन्य का सूचक है ....जीवन को उल्लास , मादकता , तरुनाई , नवीनता के साथ जीना ही बसंती रंग मे रंगना है ......बसंत ऋतू को ऋतू राज भी कहा जाता है .. जीवन के सब रंगों मे से उल्लास , हर्ष का मौसम लेके चला आता है बसंत !!!! मिलन की मधुरिमा ... रंगों से भरा फाग  ले के चला आता है बसंत !! दिल खोल इसका स्वागत करे .....आओ ऋतू राज  !         आपका स्वागत है !!!!!     

Saturday, February 5, 2011

धुंध ही .............धुंध !
चारों तरफ़ फैली ये धुंध ...!!
 जिस तरफ़ भी नज़र दौराऊँ
हर तरफ़ धुंध ही धुंध !!!!

कितनी समानता है 
मेरे आज ..और इसमे  !
मेरे जीवन मे भी....
 फैली हुई है धुंध ही धुंध !!!!!  

जाना है मुझको जिस राह
वो नज़र आती नहीं ....
खरी हूँ चौराहे पे  !
जाना है किस राह ...?????
समझ पाती नहीं !!!!!!

जानती हूँ इतना  .....
 उस पार .....
 प्रियतम है मेरा !

एक आस है .. विश्वाश है ...
ये धुंध !!!!....कभी तो हटेगी 
सूरज की रौशनी मे.....
मैं  नहाई...!  प्रियतम से मिलूंगी ....

एक छोटी सी खवाहिश है मेरी ...
जब प्रियतम से ....
मिलन हो मेरा ...
 तू फिर से छा  जाना ....
ताकि .....
कोई देख न सके ...
उस मिलन को ...!!!