Wednesday, April 2, 2014

तेरे स्पर्श को तरसती रही
तेरी चाहत के लिए तड़पती  रही

इंतज़ार  !!!
 उम्र भर किया मैंने
तेरी ज़ुस्तज़ू
तेरी आरज़ू में।

पर अजनबी
क्या तुझे भी
है आरज़ू मेरी  ????

Saturday, March 1, 2014

सर्द सी एक रात

सर्द रातों कि ख़ामोशी  में
रात  के दूसरे -तीसरे पहर
सर्द बिस्तर की चादर पे
एक दूसरे से लिपट
रिश्ते कि गर्माहट
ढूंढते हुऐ ज़िस्म।  

कभी उलझे रिश्तों को
सुलझाने कि कश्म कश में
गर्म लिहाफ में ,
 दम तोड़ते  ज़िस्म।

कभी जिंदगी का ताना  बाना बुनते
गर्म अलाव के पास
क्या खोया , क्या पाया
सिर  धुनते ज़िस्म।

कभी मय के प्याले में
 खुशियां ढ़ूढ़ते ,कह- कहे
खोखली हंसी हँसते  ,मुखोटे चढ़ाए
थके थके से ज़िस्म।

कल मौसम बदल जाएगा।









Monday, February 24, 2014

ज़िंदगी


दरख्तों के शाखों पे
लटकी सी ज़िंदगी

अनजान से रिश्तों का
बोझ ढोती  ज़िंदगी।

चाय ,कॉफी के प्यालों में
ताज़गी ढूढ़ती  ज़िंदगी

मुखोटों के पीछे
भागती ज़िंदगी
मुखोटों के पीछे
 छुपती ज़िंदगी

कभी मय  के प्याले
सी कड़वी ज़िंदगी
रेत के समुन्दर सी
प्यासी ज़िंदगी
ऊफ्फ ये सड़कों पे दौड़ती
भागती ज़िंदगी

मेरे महबूब !!!
सब कुछ भुला
तेरी बाहों में , पनाहों में
खुद को समेटती सी ज़िंदगी

हर पल कतरा  कतरा
सांस लेतीं सी ज़िंदगी
उलझे धागों सी उलझी
ये ज़िंदगी
हर रात बिस्तर पे
दम तोड़ती ये ज़िंदगी।




Sunday, February 23, 2014

बस एक ख्याल …। 

जाने क्यों ये ख्याल,
मेरे सपनों कि मुंडेर पे आके बैठ जाते है 
सारा दिन कबूतर के मानिंद 
गुटर गूं गुटर गूं
तेरे साथ बीता… 
  वो, …… 
 हर एक पल !

मेरी साँसों में समां  गया  , 
तेरी  साँसों कि तरह !!!!

तेरी यादों का धुवाँ 
जज़्ब हो गया 
मेरे  ज़िस्म में .......
 जलते लोबान कि खुशबू कि तरह 

तेरी हथेलियों कि गर्माहट ,…
मेरी  रूह को !

दे गयी तपिश,,… 
क़तरा क़तरा  सुलगने के लिए !!!

प्रियतम मेरे 
तू छोड़ गया मुझे  !
  अकेला ,....... 
तेरे ही,
 ख्यालों को सजाने के लिए  !!!!!!

Saturday, January 18, 2014

प्रेम

प्रेम !!!    इसकी कोई परिभाषा है क्या ???   कोई मान दंड ???      कोई रूप रेखा बना के क्या प्यार किया जा सकता है ?   कितने सवाल  दिमाग मैं आतें हैं   . … …पर , प्रेम  तो प्रेम है   …।और वो है तो है !!!!

जीवन के इन रास्तों पे चलते- चलते न जाने कितनी बार  इस प्रेम कि अनुभूति हुई।  प्रेम कि बात करें तो सिर्फ एक पुरुष और स्त्री के बीच मैं होने वाला केमिकल लोचा  .... ख्याल यही आता है   . हालाँकि प्रेम तो हर रूप मैं , हर रिश्ते मैं मौजूद है।

प्रेम उस से भी था जो तब मिला जब शायद समझ ही नहीं थी कि प्रेम क्या बला है  .... पर तब लगा था कि उस से सुन्दर , उस से बेहतर कुछ भी नहीं  .....सारी इंद्रियां बस  उस पर ही केंद्रित थीं। सारे रिश्ते बस एक उस रिश्ते ने भुला दिए हों जैसे  … जैसे वो मेरे साथ ही चलता हो हर पल.……।

 वक़्त गुजरा !!!!   और   …और वो  रिश्ता भी गुज़र गया  ……जीवन कि सच्चाइयों से जब मुलाकात होने लगी तो वो पीछे छूट  गया हमारा वो सरल , सादा  सा इस्क़ या प्रेम। .... आज तक वो पलट के नहीं आया........ पर , प्रेम तो वो भी था दोस्त  !!!!

शुरू  हुई जीवन कि आपा धापी और फिर एक बार हमें उस प्रेम के अनुभूति हुई। लगता था हमको कि हम समझदार हो गए पर  गलत थी ये धारणा  ....... समाज के लिए , अपनों के लिए बेशक बुद्धीमान हो गए थे हम  ……प्रेम के लिए वही बेवकूफ  …… न जाने कितनी बेवकूफियां कि हमने प्रेम मैं  …। उसका हाथ थाम दुनिया से लड़ने चले  …।  दुनिया मेरी दुनिया बस उसमें ही सिमट के रह गयी  ....  वो था तो  ... मेरा अस्तित्व था।   खुद को.…… खुद के अस्तित्व को भुला देना बस प्रेम मैं ही सम्भव है मेरे दोस्त !!!!!

 धीरे- धीरे प्रेम बदलता गया उसकी कशिश पीछे छूटती चली गयी  ……प्रेम तो था.....  पर अब जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा.… सहमा  बुझा बुझा सा। सब कुछ यंत्रचालित सा हो गया …।   यहाँ तक चेहरे पे आने वाली मुस्कान भी। .

फिर अचानक एक दिन फिर से वो सब कुछ महसूस होने लगा किसी अजनबी  के लिए  .... आँखें उसको ढूढ़ने लगी  …… उसकी नज़रों कि ताब  से पिघलने सी लगी।  उसको सामने पा दिल जोर से धड़कने लगा। …। और फिर से प्रेम हो गया  …… अब उसको देखते ही सब कुछ भूलने लगी पर अपनी जिम्मेदारी को नहीं। अब दिल पे दिमाग हावी था  …। नहीं !!!! नहीं!!!  ठक -ठक  …।   पर प्रेम तो प्रेम था। …  होना था तो हुआ। … अब उसे पाना, पर हिस्सों में !!!  मंज़ूर हो गया  ...    क्योंकि प्रेम न करना बस में नहीं था !!!!

हसरतें वही थीं , चाहतें भी वही थीं , कसक भी वही  थी  .... बस वक़्त वो नहीं था  … उम्र वो नहीं थी  … पर मित्र !!!!   प्रेम वही  था। ……

प्रेम निरंतर बहता रहा  …… मेरे अंदर  …… !!!!!   बस कभी उसे बाँध लिया ...... कभी उसे छुपा लिया। …  कभी अपने लिए!!  कभी अपनो  के  लिए !!!!  प्रेम का निभाने  कि कला अलग थी हर उम्र में  … अहसास वही था !!!  कसक वही थी।

प्रेम करना एक कला है  .... ये एक अनुभूति  है  इसे महसूस करो   …ये निरंतर  बहने वाला दरिया  है  .... ये प्रेम का दरिया  यू  ही बहता   रहे   !!!!    हर एक दिल में  …। आमीन  !!!!!






Friday, January 17, 2014

सर्दियों कि सुबह
चारों और कोहरे कि चादर ,
लिहाफ़ में लिपटे हुऐ तन को और जोर से कस लिया। .... आँखों को और जोर से मींच लिया। पर दिमाग का क्या करूँ ? उसे न ठण्ड लगती है ना  ही आलस आता है ,,,जैसे ही मौका मिला वो तो चल देता है जाने कहाँ कहाँ। ....जब से  उस से मिल के आयी एक अजीब सी उलझन मैं फंस गयी। ....

एक गुस्सा भरा है मन मैं। .... कितने मुश्किल से मैंने वो पल निकाले तब जाके उस से मिल पायी और वो अपने काम मैं मशगूल। . मेरे लिए उसके पास टाइम ही नहीं और मैं पागल सी उसके लिए पागल। ।कितनी बातें करनी थी मुझको , कितनी बातें बतानी थी पर। ....

दिमाग चल पड़ा  तो नींद कैसे आये ???

शाल को कस के लपेट कमरे का दरवाज़ा खोल बरामदे मैं आयी। … चारों और कोहरा , साथ वाला घर भी नज़र नहीं आ रहा कोहरे मैं लिपटी दुनिया और मेरे अंदर का कोहरा भी तो इतना ही घना , कुछ भी तो समझ नहीं आता कि क्या करूं। अख़बार और चाय के साथ थोरी देर के लिए मैं उसे भूल गयी पर वो तो मेरे भीतर नागफनी कि तरह उग आया था। जितना उस से दूर जाने कि सोचती वो मेरे दामन को खींच लेता। ।ओर मैं खींचती चली जाती। .

उसका ख्याल आते ही मेरे चेहरे पे मुस्कान आ जाया करती थी। उसकी नज़रें मुझे अपने  चेहरे पे नज़र आती थीं। . वो जब कहता था फ़ोन पे कि  उसे मेरी आवाज़  घंटियों जैसी लगती है और वो बार बार सुनना चाहता है। तब मेरा दिल जोर से धड़कने लगता था। मेरे हाथ काम कर रहे होते मगर दिमाग उस मैं ही उलझ रहता। उसकी कही बातें भूल ही नहीं पाती और मुस्कुराती रहती।  हर शय खूबसूरत लगती।  उसके साथ कुछ पल बिताने कि चाहत बढ़ती जाती।  सोचती कैसे वो वक़्त गुजरेगा।

कितने सपने , कितनी चाहतें उसके साथ।
ये सपना सपना ही रह गया। . हम नहीं मिले ,उसका काम उसकी कमिटमेंट्स काम के साथ बस।  उसकी दुनिया वहीँ तक सिमट के रह गयी।  और मैं आज़ाद परिंदों सी उड़ान भरने वाली बेबस। वो न पास आया न दूर ही गया। वक़्त गुजरता चला गया।  मौसम आये गए। .

और कल जब मैं हिम्मत कर मिली उस से। .......

फिर वही सवाल मुह बाये खड़ा है क्या करूं ?? इस दुविधा का अंत  तो करना ही है ना।  उसका फ़ोटो सामने है मेरे उसे देखती रही  उसकी आँखों  मैं खुद को ढूढ़ती रही फिर धीरे धीरे उसके चेहरे  पे मेरी उँगलियाँ फिरती  रहीं लगा उसे छू लिया। और फिर फ़ोन पे एक मेसेज लिखा। '. गुड बाय।  गॉड ब्लैस यू।' और सेंड कर दिया  हमेशा के लिए। 


Tuesday, January 14, 2014

यांदों कि संदूकड़ी

मेरी यांदों कि संदूकड़ी में कुछ  और पल संजो  के रखे  मैंने। … आज खोला तो कुछ पन्ने सामने खुल गए उस  से जुड़े हुऐ। उम्र  के उस मोड़ पे जब नए ख्वाब नही देखे जाते। ।एक दिन अचानक एक मैसेज मिला मेल पे.…। उत्तर नहीं दिया तो फिर से वही मेसज। जाने क्या था उन शब्दों में। … और फिर एक अनजाने नंबर से फ़ोन आया। और वो नंबर जाना पहचाना हो गया। । वो आवाज़ जानी पहचानी हो गयी। कुछ था हमारे बीच एक आकर्षण। … 

एक दिन उसने कहा    मिलोगी मुझसे ? और मैंने कहा क्यों नहीं !!!!! 

जाने कितनी बार खुद को आईने में देखा। शायद कई सालों से खुद को इस तरह नहीं देखा था। ओह कितनी कमियां नज़र आयीं खुद मैं  . नियत वक़्त पे मैं धड़कते दिल के साथ एअरपोर्ट पंहुची। न उसने मुझे देखा था न मैंने उसे  …फोन की घंटी के साथ मेरे दिल कि धड़कन बढ़ गयी और हम दोनों आमने सामने। खुद को काबू किया   ज़ाने क्यों एक अंजना सा डर मुझे घेरने लगा। किसी तरह काबू किया किया खुद पे , खुद के डर  पे और हम अनजान से पहचाने हो गए। एक कहानी कि शुरुआत हो गयी  .और वो पल मेरी संदूकड़ी में  

मौसम बदलते रहे और एक दिन,.   फिर वही सवाल ,  मिलोगी मुझसे ? क्यों नहीं जबाब मेरा  !!!

हम एक दूसरे  के सामने। कितनी बातें कुछ कही कुछ अनकही ,कुछ सुनी कुछ अनसुनी  ,कुछ समझा फिर भी बहुत कुछ रह गया समझने को ,बहुत कुछ जाना फिर भी बहुत कुछ रह गया जान  ने को  . हम थे और हमारे बीच वाइन के ग्लास और कुछ स्नैक्स। …वाइन ने कुछ कुछ पिघलाना शुरू किया जमी हुई चुप्पी को  !  और वक़्त एक और कहानी लिख गया। …ओर मेरी संदूकड़ी में सहेज़ के रखी मेरी यादों कि जमा पूँजी में  एक और पल जुड़ गया । 

वक़्त गुज़रता रहा।   अपने अपने हिस्से का सफ़र हम तय करते रहे. जाने उसके हिस्से मैं क्या था मुझे नहीं मालूम। … मेरे हिस्से का उसे नहीं मालूम। ।कोई गिला नहीं कोई शिकवा नहीं। . 

मिलोगी मुझसे ? उसने पूछा मुझसे और मैंने उसी लहज़े मैं कहा क्यों नहीं ??? 

और फिर मैंने उस सर्द रात मैं उस से मिलने का मन बनाया ,,,सर्दियों कि वो सुन सान रात और हम और हमारे बीच बहुत कुछ अनकहा। उसकी बाहों के घेरे मैं पिघलती मैं। मेज पे रखे दो गिलास और व्हिस्की कि बोतल, कुछ नमकीन    ……। दूर कुछ खिड़कियों से छन छन के आती रौशनी। ....... आसमान पे बादलों से खिलवाड़ करता चाँद। ।चारों  ओर फैला सन्नाटा   !! उसकी गर्म साँसों कि आवाज़ और मेरे दिल कि धड़कने कि आवाज़। .... और वक़्त ने एक और पन्ना रंग दिया मेरी यादों का। । 

मेरा इंतज़ार करता वो अकेले रेस्त्रा में.………… उसके सामने रखा व्हिस्की का गिलास सब कुछ कितना रूमानी लग रहा था। । मैं रात को अकेले उस से मिलने जा रही थी। …उसके साथ वक़्त से कुछ रंगीन रूमानी पल छीन लेना चाहती  थी। वो मेरा नहीं ,मैं उसकी नहीं, कोई करार नहीं। कोई वादा भी नही.……मैं बोलती जा रही थी और वो मुझे सुनता जा रहा था, मेरी सारी  दुनिया जैसे सिमट के उस में समां गयी  … उसकी नज़र का तिलिस्सम  मुझे बाँध गया।  वो पल मेरे दिल पे एक कहानी लिख गया। …मेरी यादों कि संदूकड़ी में मैंने उसे भी सहेज के रख दिया। । 

इंतज़ार कुछ और यादों का !!!!