Wednesday, December 22, 2010

रात न जाने क्या हुआ ... मै कुछ पलों मै सारी बीती जिंदगी जी गयी ... खाव्ब थे या गुजर चुकी कहानी ..पात्र वही थे सिर्फ रंगशाला अलग थी ... सालो पुराने देखे खाव्ब का ...जो पूरा नहीं हुआ ... आज उसका अंतिम संस्कार था शायद ...कुछ और खाव्ब जो देखे थे मैंने .. सोचा था शायद मेरे जीवन मै पूर्णता ... पर आज भी नदी के इस पार हूँ .. रात उनसे भी मिली ... पात्र वही थे बस मौसम अलग था ...कुछ सवालो के जबाब देती रही रात भर ... शायद  खुद को मुक्त करती रही अनचाहे बन्धनों से ..आत्मा पे कही कुछ बोझ था ..शायद वो खाव्ब बन आया था ..... पन्ने पलटते रहे रात भर ... मौसम बदलते रहे ...सुर बदलते रहे ..बस एक मै ही नहीं बदली ....
आँख खुली तो ...सोचने लगी ये सब क्या था ? सोचने का वही क्रम फिर चल पड़ा ....... सोचा मै ही बदल जाऊं शायद सब बदल जायेगा  ..... और अब खुद को बदलने का मौसम आ गया  शायद !   

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