कभी कभी कुछ इत्तेफ़ाक इतने हसीन होते है की वो हमारे ज़िन्दगी मे हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ जातेहै उन पलों की याद हमारे सीने मे कही दफ़न हो जाती है . दफ़न नहीं शायद एक बीज की तरह मन के किसी कोने मे वो छुप के बैठ जाते हैं ..जैसे ही उसके मन माफिक मौसम आया वो झट से अंकुर के रूप मे जनम ले लेते है . धीरे- धीरे एक नन्हा सा बीज एक हरे भरे वृक्ष की तरह लह लहाने लगता मन के किसी कोने मे.....
इन्सान अपनी फितरत नहीं छोड़ सकता .चाँद अपनी चांदनी नहीं ...दिया अपनी रौशनी नहीं तो मैं क्यों ?वही बहती हवाओं के साथ बहना ...गुनगुनाना ..वो बेफिक्र चिड़ियों की तरह चह-चहाना..... वर्षो बाद जब फिर से हम मिले तो लगा ही नहीं की इतने वर्षों का अन्तराल ....समय जैसे रुक गया हो , यक़ीनन हमारे चेहरों पर वो तरुनाई नहीं रही ..पर बचपना फिर से लौट आया..
दिल्ली से बहुत दूर एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा .... वहां मेरा जनम तो नहीं हुआ पर ७-८ साल की उम्र से हम वहां रहने लगे ... बहुत कुछ बदल गया था जिन्दगी मे हम सबकी . तितली की तरह इधर उधर भटकने वाली प्यारी सी भोली सी लड़की एकदम खामोश हो गयी थी.वो जिधर भी जाती लोग उसे उस खोये हुए का... अहसास करवाते .....और उसने अपने चारों और एक किले का निर्माण कर लिया धीरे -धीरे ... वो दया के भाव से देखती आँखे उसे नींद मे भी डराने लगी थी .गुलाबी रंग वाली वो सुनहरे और घुघराले बालो वाली वो छोटी सी लड़की जिधर से भी गुजरती लोग उसे जरूर देखते और वो उन सब की नज़रों से छुप जाना चाहती . ऊँचे- नीचे पहाड़ी रास्तों पे कभी गिरती , कभी डगमगाती वो स्कूल से घर तक का सफ़र मुश्किल से तय करती ...लहूलुहान घुटनों को कभी सहलाती और कभी छिली हुई हथेलियों को देखती .......
वक़्त का पहिया घूमता रहा ..हालत ने मौका ही नहीं दिया की ज्यादा कुछ सोच पाए अपनी इस वक़्त के बारे मे . बचपन की शरारतो के आगे सब कुछ भूलने लगा .. रह गया सिर्फ वो पल जिस मे जी रहे थे ना भूत ना भविष्य . धीरे धीरे बचपन भी साथ छोड़ने लगा ..वो गिल्ली डंडा खेलना , भाई के साथ कंचे खेलना ..सब छूटने लगा .... फिर रातों को चाँद तारों को देखना , हवा के रुख को भापं जाना , बहती नदी का शोर , गुलशन नंदा के उपन्यास सब अच्छे लगने लगे ..... जब ठंडी हवा बहती तो घर पे बंद कमरों मे रहना बिलकुल नहीं भाता मुझे .... जाने मुझे क्यों लगता था हर चीज़ मुझे बुला रही हो .... नदी का किनारा हो या दूर गिरते हुए झरने ...प्रकृति
की एक - एक शय मुझे अपने पास बुलाती ....और मैं !!! हर शय को छू लेना चाहती थी ..महसूस करना चाहती थी ... शायद आज भी ...
आडू के गुलाबी फूल ....ओह्ह्ह्हह्ह खुबानी के सफ़ेद फूल .. जक्रेंदा के हलके जामुनि फूल, पत्ते कम और फूलों से लदे हुए पेड़... आज भी मेरी कमजोरी हैं ...हलकी सर्दी मे दूधिया चांदनी मे नहाये हुए ये पेड़ और दूर सामने चीड के पेड़ों के पीछे से झांकता हुआ चाँद ... चाँद की रौशनी मे सारा क़स्बा सोया हुआ ... कभी कभी कुत्तों की भोंकने की आवाज़ .. पहाड़ी की चोटी पे बना मेरा घर .जिस से नीचे बसा पूरा शहर नज़र आता ... नीचे घाटी मे बहती अलकनंदा का शोर.. . रात की नीरवता मे और भी मुखर हो जाता .... और मैं शाल मे खुद को लपेटे रेलिंग का सहारा लिए घंटो दूर दूर तक बहती नदी ... दूर पहाड़ियों पे नज़र आते हुई चीड के पेड़ों की कतार ...कही कही टिमटिमाते रौशनी के दिए ...और इन सबसे खूबसूरत चांदनी मे भीगे हुए त्रिशूल की हिमाच्छादित चोटियों को देख -देख अपनी ही बनायीं हुई एक नयी दुनिया मे विचरण करती .........वो सब पल आज भी मेरे अन्दर जीवित हैं ....कभी कभी लगता है मै आज भी उस वक़्त मै जी रही हूँ...
कितना खूबसूरत वक़्त था वो ...जब मैं और सिर्फ मैं ....हवाओं मे घुल मिल जाते ..परिंदों के परों पे चढ़ ख्वाबों की दुनिया की सैर करते ... फिर धीरे धीरे मेरे ख्वाबों की दुनिया बढती गयी और जिसमे मेरे सपनों के राजकुमार का आगमन होने लगा और मैं खुद से ही शर्माने लगी ... मुझे हर खूबसूरत चीज़ और भी खूबसूरत लगने लगी ... हर आह्ट पे मैं चोंकने लगी .हर वक़्त एक खूबसूरत इंतज़ार ......
आज कई सालों बाद लगता है मैं आज भी वही खड़ी हूँ ......आज भी मैं छत की मुंडेर के सहारे खड़े हो जब शाम को कबूतरों के झुण्ड को एक साथ उड़ते हुई देखती हूँ तो..... लगता है आज भी उनके पंखों पे चढ़ खुले आसमां मे पींगें भरती हूँ ....स्थान बदल गया , रूप रंग भी बदल गया पर मेरे अन्दर की वो मासूम सी, भोली सी हर बात पे खिलखिलाती सी बच्ची आज भी वही है ...
इन्सान अपनी फितरत नहीं छोड़ सकता .चाँद अपनी चांदनी नहीं ...दिया अपनी रौशनी नहीं तो मैं क्यों ?वही बहती हवाओं के साथ बहना ...गुनगुनाना ..वो बेफिक्र चिड़ियों की तरह चह-चहाना..... वर्षो बाद जब फिर से हम मिले तो लगा ही नहीं की इतने वर्षों का अन्तराल ....समय जैसे रुक गया हो , यक़ीनन हमारे चेहरों पर वो तरुनाई नहीं रही ..पर बचपना फिर से लौट आया..
दिल्ली से बहुत दूर एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा .... वहां मेरा जनम तो नहीं हुआ पर ७-८ साल की उम्र से हम वहां रहने लगे ... बहुत कुछ बदल गया था जिन्दगी मे हम सबकी . तितली की तरह इधर उधर भटकने वाली प्यारी सी भोली सी लड़की एकदम खामोश हो गयी थी.वो जिधर भी जाती लोग उसे उस खोये हुए का... अहसास करवाते .....और उसने अपने चारों और एक किले का निर्माण कर लिया धीरे -धीरे ... वो दया के भाव से देखती आँखे उसे नींद मे भी डराने लगी थी .गुलाबी रंग वाली वो सुनहरे और घुघराले बालो वाली वो छोटी सी लड़की जिधर से भी गुजरती लोग उसे जरूर देखते और वो उन सब की नज़रों से छुप जाना चाहती . ऊँचे- नीचे पहाड़ी रास्तों पे कभी गिरती , कभी डगमगाती वो स्कूल से घर तक का सफ़र मुश्किल से तय करती ...लहूलुहान घुटनों को कभी सहलाती और कभी छिली हुई हथेलियों को देखती .......

की एक - एक शय मुझे अपने पास बुलाती ....और मैं !!! हर शय को छू लेना चाहती थी ..महसूस करना चाहती थी ... शायद आज भी ...
आडू के गुलाबी फूल ....ओह्ह्ह्हह्ह खुबानी के सफ़ेद फूल .. जक्रेंदा के हलके जामुनि फूल, पत्ते कम और फूलों से लदे हुए पेड़... आज भी मेरी कमजोरी हैं ...हलकी सर्दी मे दूधिया चांदनी मे नहाये हुए ये पेड़ और दूर सामने चीड के पेड़ों के पीछे से झांकता हुआ चाँद ... चाँद की रौशनी मे सारा क़स्बा सोया हुआ ... कभी कभी कुत्तों की भोंकने की आवाज़ .. पहाड़ी की चोटी पे बना मेरा घर .जिस से नीचे बसा पूरा शहर नज़र आता ... नीचे घाटी मे बहती अलकनंदा का शोर.. . रात की नीरवता मे और भी मुखर हो जाता .... और मैं शाल मे खुद को लपेटे रेलिंग का सहारा लिए घंटो दूर दूर तक बहती नदी ... दूर पहाड़ियों पे नज़र आते हुई चीड के पेड़ों की कतार ...कही कही टिमटिमाते रौशनी के दिए ...और इन सबसे खूबसूरत चांदनी मे भीगे हुए त्रिशूल की हिमाच्छादित चोटियों को देख -देख अपनी ही बनायीं हुई एक नयी दुनिया मे विचरण करती .........वो सब पल आज भी मेरे अन्दर जीवित हैं ....कभी कभी लगता है मै आज भी उस वक़्त मै जी रही हूँ...
कितना खूबसूरत वक़्त था वो ...जब मैं और सिर्फ मैं ....हवाओं मे घुल मिल जाते ..परिंदों के परों पे चढ़ ख्वाबों की दुनिया की सैर करते ... फिर धीरे धीरे मेरे ख्वाबों की दुनिया बढती गयी और जिसमे मेरे सपनों के राजकुमार का आगमन होने लगा और मैं खुद से ही शर्माने लगी ... मुझे हर खूबसूरत चीज़ और भी खूबसूरत लगने लगी ... हर आह्ट पे मैं चोंकने लगी .हर वक़्त एक खूबसूरत इंतज़ार ......
आज कई सालों बाद लगता है मैं आज भी वही खड़ी हूँ ......आज भी मैं छत की मुंडेर के सहारे खड़े हो जब शाम को कबूतरों के झुण्ड को एक साथ उड़ते हुई देखती हूँ तो..... लगता है आज भी उनके पंखों पे चढ़ खुले आसमां मे पींगें भरती हूँ ....स्थान बदल गया , रूप रंग भी बदल गया पर मेरे अन्दर की वो मासूम सी, भोली सी हर बात पे खिलखिलाती सी बच्ची आज भी वही है ...