Friday, November 30, 2012

टूटा हुआ लम्हा

वक्त की शाख से टूटा हुआ एक लम्हा ,
यूँ आके  मिला , आज  मुझसे !


कॉफ़ी की खुशबू से महकते कॉफ़ी घर की  ,
खिड़की से लगी मेज पे  रखे प्याले से ,
उठते धुऐं और खुशबू की तरह 
यूँ आके आज मिला मुझसे ...

मयखाने के गिलासों से उठती गंध ,
मुहँ मे फैली कडुवाहट ,
गले से उतरती गर्माहट की तरह ,
यूँ आके मिला आज मुझसे !!!

सर्दियों की ठिठुरती शाम ,
सिगड़ियों से निकलते धुऐं ,
और उस पे  सिकती गर्म रोटियों की
 खुशबू की तरह
यूँ आके आज मिला मुझसे !!!

वक्त की शाख से टूटा एक लम्हा ...
यूँ आके आज मिला मुझसे !!!!1

Saturday, September 22, 2012

कुछ सवाल नागफनी के काँटों की तरह उगते ही रहते हैं .....अगर वो सवाल नहीं होते तो शायद जिन्दगी आसान होती या मुश्किल पता नहीं .... एक सवाल का जबाब मिलता नहीं पूरी तरह तो दूसरा मुहं खोले तैयार .....सुलझाने लगती हूँ तो और उलझ जाती हूँ ...

जीने की कला ......रोकर जिन्दगी गुजारने  मै  नहीं ...बेचारगी मैं तो नहीं ...जिन्दगी को घसीटने मैं भी नहीं ....\

इंसान हो या परिस्तिथी  ,जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार करो ! जिन्दगी थोड़ी आसान हो जाएगी ....इस पर भी कई सवाल उठ खड़े हुए ...

सबसे बड़ा अहम् सवाल , मै कौन हूँ ????? कितने ही उत्तर दे दिए खुद को परन्तु फिर भी लगा मैं  तो नहीं ...ये तो सिर्फ मेरी पहचान भर है ....मैं तो नहीं ...

जहाँ से शुरू हुई थी वही पे जाके ख़तम हो गयी मेरी खोज आधी अधूरी .....


Wednesday, August 1, 2012

जियें सभी बहनों के भाई

जियें सभी बहनों के भाई  !!! कही भी रहें ...दूर और पास कोई मायने नहीं रहता.....बस वो सलामत रहें !!!! राखी का त्यौहार करीब आ रहा है , चारों तरफ राखियाँ ही राखियाँ .....दुकाने सजी हैं रंग  बिरंगी राखियों से ...बड़ी , छोटी , रेशम के धागों से.....

मै चाहती हूँ की मैं इस त्यौहार को निर्विकार  हो कर देखूं पर चाहने से भी ऐसा कर नहीं पाती जाने क्यों विचलित हो ही जाती हूँ ....न भीगने वाली इन आँखों में बरबस  पानी आ ही जाता है ! जो खो गया ,जो बिछुड़  गया हमेशा के लिए उसकी याद में ....

जब वो था तो, मिलूं  या न मिलूं पर उसके लिए दिल से दुआ करती थी , उसकी लम्बी उम्र ,उसकी खुशहाल जिन्दगी के लिए.....बस एक सादी सी राखी का धागा  बहुत  लगता था मुझे .....जिसमें  लपेट के मैं अपनी सारी शुभ-कामनाए उसे भेज देती थी और ख़ुशी ख़ुशी  ये त्यौहार बच्चों  के साथ बीत जाता था .   

मेरी बेटी नहीं पर घर पर फिर भी रौनक बनी रहती थी . अपने भाइयों को राखी बांधने उनकी मैंने  मौसी और बुआ की बेटियां आती और उनसे पूजा का सामान लगवाती ,दिया जलाकर भाईयों  को राखी बंधवा , मुझे   लगता मैंने  मेरे एकलौते छोटे भाई को अपना आशीर्वाद दे दिया ..

पर आज जब वो इस दुनिया में  नहीं रहा तो ..उसकी कमी का अहसास बना रहता है .कोई भाइयों से जुड़ी  बातें करें तो मेरी आँखें भर आती हैं ...दूर ही सही पर था तो ......किसी अपने को  खोना कितना दुखदायी होता....जो खो दे वही महसूस करता है !

कल राखी है और मैं  दिल से  सभी बहनों के भाइयों को दुआ देती हूँ वो सलामत रहें ... खुश रहें !!!!!!

Sunday, July 29, 2012

इश्क है इबादत



ये इश्क है या इबादत ? 
ये तो खुदा ही जाने  !
      या  रब्ब !!!                                               
मुझे माफ़ करना !
मेरा मीत ..... 
 मेरे रग -रग मै समाता है 
मेरी कल्पनाओ मै ...
उसका !
अक्स उभेर आता है  ..

 उसके  होने से 
पूरी हो जाती है हर कमी .....
अपने अधूरेपन का अहसास ही नहीं रहता  !
इश्क इबादत का दूसरा रूप है ,
तुझको पाने की राह है..!
तेरे सजदे मै झुकता है सिर  मेरा 
तुझसे मांगती हूँ ...
मै इश्क मेरा .....................

रब्बा मेरे !!!!!
मुझे राह दिखा ....
रूहानी मुहब्बत करा  
जहाँ  पाने की ...
.ना ...
चाह हो ,
खुद को मिटाने की राह हो ! 
इश्क मै ही तुझे पानां है 
तेरी इबादत मै सिर झुकाना है .........................

Saturday, July 28, 2012

बरसात का एक दिन

रात कुछ बादल गरजे और फिर लगा बादलों ने आज बरस कर जल और थल एक कर देना है ... सुबह भोर की किरण के साथ देखा  की मेरे घर के आस पास तो सूखा ही पड़ा है ....हवा का मिजाज़ बता रहा  था की कही तो ये बादल बरसे है ...कहीं तो प्यासी धरती की प्यास बुझी है .आसमाँ बादलों से अब भी भरा हुआ था ..मौसम उमस भरा बस कभी कभी हवा का झोंका आता और और बारिश हुई है कहीं इस का अहसास करा जाता ..उम्मीद से बाहर देखती हूँ की जल्दी ही ये बादल आसमाँ का सीना चीर धरती को अपनी अमृत वर्षा  से भिगो देंगें और फिर धरती तृप्त हो नये जीवन के अंकुर से अंकुरित हो नये रूप मे अवतरित होऐगी...
जाने बाहर देखते हुई मुझे लगा मै ही नहीं प्रकृति भी उन अमृत की बूंदों का बेसब्री से ही इंतज़ार कर रही हैं .... लगा जैसे सब चातक की तरह आसमाँ की तरफ टक टकी  लगाये बैठे हैं प्रतीक्षा में .....चारों और एक उदासी सी छाई हुई है ..एक अजीब तरह की बैचैनी ..

दोपहर का वक़्त ....अचानक जोर जोर से बादल गरजने लगे ...बिजली की  कौंध ...लगा दो दैत्य आपस मे युध्ह कर रहें हो ....ओह्ह्ह्ह आज तो बस बरस ही जायेगा ये बादल जो कब से बरसने के इंतज़ार मे बैठा है ...इतना गर्जन कि धरती ही हिल जाये ....बाहर ये तांडव चल रहा और.मैं   !!!!  ये सब देखती रही एक निर्विकार  भाव लिए  ..कभी आसमाँ पे छायें बादलों को देखती कभी बाहर यूकिलिप्टस के वृक्षों को जो बस बिना हिले डुले इंतज़ार कर रहें है उन जीवनदायनी बूदों का ....

अचानक सोंधी सोंधी मिटटी कि खुशबू पूरे सबाब के साथ उठने लगी ...मैंने उठकर देखा तो बड़ी बड़ी बूंदे धरती के आगोश में  समाने  लगी ....और धरती ने ....  इस मिलन के आनंद में  सोंधी सोंधी खुशबू बिखेर दी ...
बूँदें बरसती रहीं कभी जोर से और कभी धीरे धीरे .. मैं खिड़की पे खड़ी खड़ी बारिश का ये मन को  मोहने वाला नज़ारा देखती रही..... कभी कुछ भी साफ़ नहीं दिखाई देता सिर्फ बारिश कि बूंदे ही बूँदें और धरती पे बिखरा पानी ही पानी ....सड़क अब निखरी निखरी लगने लगी ....आने जाने वाले    कुछ वाहन , मेरे और प्रकृति के इस मौन को  तोड़ देती कुछ पलों के लिए, पर फिर से हम दोनों के बीच एक रिश्ता कायम हो जाता ! सड़क के किनारे किनारे बहुत से वृक्ष हैं जो अब तक एक  भिखारिन की तरह , बेजान, मलिन से लग रहे थे अब किसी नव योवना कि तरह मदहोशी के आलम में  थे .....हर एक एक पत्ता नहाया हुआ है उस अमृत रस .... जैसे नवयोवना का एक एक अंग  भीगा  हुआ हो प्रेमरस  में    ...और मैं  !!!  उन दरख्तों का हुस्न देख देख निहाल होती रही ...
  
अब धीरे धीरे वर्षा का वेग कुछ कम हुआ .... मिलन कि वो तीव्र इच्छा...  लगा जैसे भूखे  कि भूख !!!  अब धीरे -धीरे शांत होने लगी हो .......फिर  हल्की हलकी फुहारें पड़ने लगीं और मैं  खिड़की के पास बैठे बैठे उस आलम का मज़ा चाय की चुस्कियों के साथ लेने  लगी .....धीरे धीरे बारिश बंद हो गयी और मैं   बारिश कि बूंदों  को  निहारती रही ..... छत से गिरती बूंदे ,   वृक्षों की शाखों से गिरती बूँदें , फूलों की पंखुड़ियों पे अटकी  बूँदें ....जीवनदायनी बूँदें !!!!!!


पेड़ों की शाखों पे अटकी बारिश की बूँदें ,
 इंसान के जीवन की कहानी कहती बूँदें !
 इन बूंदों मे दिखते सतरंगी सपने ,
इन सपनों को महकाती शबनम की बूंदे !!!

Friday, November 25, 2011

सफ़र

कभी कभी   कुछ इत्तेफ़ाक इतने हसीन होते है की  वो हमारे ज़िन्दगी मे हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़  जातेहै  उन  पलों  की याद हमारे सीने मे कही दफ़न हो जाती है . दफ़न नहीं शायद एक बीज की तरह मन के किसी कोने मे वो छुप के बैठ जाते हैं ..जैसे ही उसके मन माफिक मौसम आया वो झट से अंकुर के रूप मे जनम ले लेते  है . धीरे- धीरे एक नन्हा सा बीज एक हरे भरे वृक्ष की तरह लह लहाने लगता मन के किसी कोने मे.....

इन्सान  अपनी फितरत नहीं छोड़ सकता .चाँद अपनी चांदनी नहीं ...दिया अपनी रौशनी नहीं  तो मैं क्यों ?वही बहती हवाओं के साथ बहना ...गुनगुनाना ..वो बेफिक्र चिड़ियों की तरह चह-चहाना..... वर्षो बाद जब फिर से हम मिले तो लगा ही नहीं की  इतने वर्षों  का अन्तराल ....समय जैसे रुक गया हो  , यक़ीनन  हमारे चेहरों पर वो तरुनाई नहीं रही ..पर बचपना फिर से लौट आया..

दिल्ली से बहुत दूर एक छोटा सा पहाड़ी क़स्बा .... वहां मेरा जनम तो नहीं हुआ  पर ७-८ साल की उम्र से हम वहां रहने लगे ... बहुत कुछ बदल गया था जिन्दगी मे हम सबकी . तितली की तरह इधर  उधर भटकने वाली प्यारी सी भोली सी लड़की एकदम खामोश हो गयी थी.वो जिधर  भी जाती लोग उसे उस खोये हुए का... अहसास करवाते .....और उसने अपने चारों  और एक किले का निर्माण कर लिया धीरे -धीरे ... वो दया के भाव से देखती आँखे उसे नींद मे भी डराने लगी थी .गुलाबी रंग वाली वो सुनहरे और घुघराले बालो वाली वो छोटी सी लड़की जिधर  से भी गुजरती लोग उसे जरूर देखते  और वो उन सब की नज़रों से छुप जाना चाहती .   ऊँचे-  नीचे   पहाड़ी रास्तों पे कभी गिरती , कभी डगमगाती वो स्कूल  से घर तक का सफ़र मुश्किल  से तय करती ...लहूलुहान घुटनों को कभी सहलाती और  कभी छिली हुई हथेलियों को देखती .......

वक़्त का पहिया घूमता रहा ..हालत ने मौका ही नहीं दिया की ज्यादा कुछ सोच पाए अपनी इस वक़्त के बारे मे . बचपन की शरारतो के आगे सब कुछ भूलने लगा .. रह गया सिर्फ वो पल जिस मे जी रहे थे  ना  भूत ना  भविष्य . धीरे धीरे बचपन भी साथ छोड़ने लगा ..वो गिल्ली डंडा खेलना , भाई के साथ कंचे  खेलना ..सब छूटने लगा .... फिर रातों को चाँद  तारों को देखना , हवा के रुख को भापं  जाना , बहती नदी का शोर , गुलशन नंदा के उपन्यास  सब अच्छे  लगने लगे ..... जब ठंडी हवा बहती तो घर पे बंद कमरों मे रहना बिलकुल नहीं  भाता मुझे .... जाने मुझे क्यों लगता था हर चीज़  मुझे बुला रही हो .... नदी का किनारा हो या दूर गिरते हुए झरने ...प्रकृति
की एक - एक शय मुझे अपने पास बुलाती ....और मैं !!! हर शय को छू लेना चाहती थी ..महसूस करना चाहती थी ... शायद आज भी ...

आडू के गुलाबी फूल ....ओह्ह्ह्हह्ह  खुबानी के सफ़ेद फूल .. जक्रेंदा के हलके जामुनि फूल,   पत्ते कम और फूलों से लदे हुए पेड़... आज भी मेरी कमजोरी हैं ...हलकी सर्दी मे दूधिया चांदनी मे नहाये हुए ये पेड़ और दूर  सामने चीड के पेड़ों के पीछे से झांकता हुआ चाँद ... चाँद  की रौशनी मे  सारा क़स्बा सोया हुआ ... कभी कभी कुत्तों की भोंकने की आवाज़ .. पहाड़ी की चोटी पे बना मेरा घर .जिस से नीचे बसा पूरा शहर नज़र आता ... नीचे घाटी मे बहती अलकनंदा का शोर.. . रात की नीरवता मे और भी मुखर हो जाता .... और मैं शाल मे खुद को लपेटे रेलिंग का सहारा लिए घंटो दूर दूर तक बहती नदी ... दूर पहाड़ियों  पे नज़र आते हुई चीड के पेड़ों की कतार ...कही कही टिमटिमाते रौशनी के दिए ...और इन सबसे खूबसूरत चांदनी मे भीगे हुए त्रिशूल की हिमाच्छादित  चोटियों को देख -देख  अपनी ही बनायीं हुई एक नयी दुनिया मे विचरण करती .........वो सब पल आज भी मेरे अन्दर जीवित हैं ....कभी कभी लगता है मै आज भी उस वक़्त मै जी रही हूँ...

कितना खूबसूरत वक़्त था  वो ...जब मैं और सिर्फ मैं ....हवाओं मे घुल मिल जाते ..परिंदों के परों पे चढ़ ख्वाबों  की दुनिया की सैर करते ...  फिर धीरे धीरे मेरे ख्वाबों की दुनिया बढती गयी और जिसमे मेरे सपनों के राजकुमार का आगमन होने लगा और मैं खुद से ही शर्माने लगी ... मुझे हर खूबसूरत चीज़  और भी खूबसूरत लगने लगी ... हर आह्ट पे  मैं चोंकने लगी .हर वक़्त एक खूबसूरत इंतज़ार ......

आज कई सालों बाद लगता है मैं आज भी वही खड़ी हूँ ......आज भी मैं छत की मुंडेर के सहारे  खड़े हो जब शाम को कबूतरों के झुण्ड को एक साथ उड़ते हुई देखती हूँ तो..... लगता है  आज भी उनके पंखों पे चढ़ खुले आसमां मे पींगें  भरती हूँ ....स्थान बदल गया , रूप रंग  भी बदल गया पर मेरे अन्दर की वो मासूम सी,  भोली सी हर बात पे खिलखिलाती सी  बच्ची आज भी वही है ...







Wednesday, October 12, 2011

रात के हमसफ़र

सपने कितने अजीब होते हैं ...कई बार तो  जहन से वो निकलते ही नहीं ...पीछा करते रहते है . मै उनमें उलझी उन अनजानी , अबूझ बातों को सुलझाने कि कोशिश करती रहती हूँ . आज सुबह भी इसी अहसास के साथ उठी ....ना जाने ऐसा की छुपा था उस सपने में...बहुत दिन हुई कुछ ऐसे सपने देखे जिन्होंने मुझे आने वाले पलों का अहसास करवाया था .. आज जो देखा क्या वो हो सकता है ??? पर ऐसा क्यों होगा ? कैसे होगा ?
   शरद पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ मेरी खिड़की पे आके बैठ गया....... मेरा वो बड़ा सा कमरा जिसमे जरूरत कि हर चीज़  करीने से लगी ... ज्यादा सामान नहीं ...मुझे खाली खाली सा कमरा अच्छा लगता है ... खिड़की से झांकता चाँद मेरे पूरे कमरे मे अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है ....मुझे उसके साथ बातें करना बहुत अच्छा लगता है .... वो बातें जिन्हें कोई सुन नहीं सकता ...बरसों से बस हम दोनों कि गुप चुप चलती बातों का सिलसिला निरंतर बहता ही रहता है .... कभी कभी ऐसा भी हुआ कि मै वो मेरे पास आया पर मै उसे समय  ही नहीं दे पाई .. वो मुझसे नाराज़ नहीं हुआ कभी भी ... कभी दरख्तों के नीचे छनती हुई चांदनी मे सूखे हुई पत्तों के ढेर पे बैठकर ना जाने कितनी बाते करती रही मै... कभी सर्द मौसम में,खुद को गर्म कपड़ों में लपेट बाहर कुर्सी या बरामदे कि सीढ़ियों पे , पिलर पे पीठ टिकाये घंटो प्रकृति को निहारते ....समय का पता ही नहीं चलता ... जब वो मेरी मुडेर पे आके मुझे आवाज़ देता तो लगता है  बस अब कोई भी मुझे आवाज़ ना दे .... रात को पेड़ कि शाख पे बैठा वो मुझे चिढाता है ..जी करता है हाथ बढा उसे मुट्ठी मै कैद कर लूं...

  कल रात भी  वो  मेरे कमरे कि खिड़की पे आके बैठ गया ... उसकी दूधिया चांदनी में....  सब कुछ निखर गया .... एक अजीब सी मदहोशी छाने लगी ..मेरे कमरे कि हर चीज़ उसके स्पर्श से नव योवना कि तरह निखर गयी . . ..मै दिन भर के उबाऊ कामों से निपट ... उबाऊ तो शायद इतने नहीं जितने कि रोज़ रोज़ वही करने से नीरस हो गए ...वही चेहरे , वही बाते, वही शिकवे शिकायतें ... वही मेरा उनको देखना , सुन ना , चेहरे पे मुस्कान लाकर दिमाग का वही फिर से सोचना क्यों ????? मेरे अभयस्त हाथों से हर जरूरी काम का होना ...फिर  वही नीरसता ... ...
  कमरे का दरवाज़ा बंद कर मै अपने बिस्तर पे आ लेटती हूँ .... आँखों को बंद कर उसे महसूस करती हूँ ....उसकी कोमल किरणे मेरे हर अंग को स्पर्श करती है और मुझे मदहोशी छाने लगती है ..लगता है जैसे प्रियतम ने छू लिया हो ...मै सपने देखती हूँ खुली आँखों से ...कभी देखती हूँ चांदनी रात मे , मै और वो किसी समुन्दर के किनारे रेत मे नंगे पाँव चल कदमी कर रहें है .. लहरें बार बार आकर हमें छू जाती है और हम एक दूसरे मे खोये से ... समय बीत ता जाता है , कभी छत पे सफ़ेद चादरों मे लिपटे हुए एक दूसरे कि बाहों मे खोये हुए से ...   ना जाने कब नींद  के आगोश मे समां जाती हूँ .... अचानक लगता है कुछ  अजीब सा अहसास है ..मै जानने कि कोशिश करती हूँ ...
 लगता है मेरी कोख मेचाँद का एक कतरा है .... नहीं पर ऐसा कैसे हो सकता है ???? नहीं !!! हो ही नहीं सकता ..पर कुछ तो है... ओह  अब क्या होगा ??? शायद कभी मैंने उसे इस रूप मे चाहा  हो कि उसका एक अंश मेरी कोख मे भी हो ... पर अब ????ठक्क! ठक्क !   कैसे ??? ठक्क ! ठक्क ! ये मैंने क्या कर दिया ??? ठक्क... ठक्क .. पर कैसे  हो सकता है ??? ठक्क ! ठक्क ! दिमाग पे  ठक्क ! !!!
सिर भारी हो गया . सांस रुकने लगी .. आँख खुल गयी .... देखा कमरे मे अब चांदनी नहीं थी .. खिड़की के बाहर रौशनी नज़र आ रही थी ..पानी के कुछ घूँट  पी ... धीमे धीमे क़दमों  से चल खिड़की तक आई अपने प्रियतम को विदा करने ... दूर आसमान पे वो अब भी चमक रहा था ... कुछ उदास ...उसकी चमक धूमिल सी हो गयी थी ... थकी थकी आँखों से मै उसे कुछ पल निहारती रही ... हम दोनों को ही जैसे एक ही दर्द था ..... हम दोनों ही इस सफ़र मे अकेले ही थे ..... हमें अपने प्रियतम कि तलाश जो थी ...हम दोनों हमसफ़र जो थे  रात भर के .....
  रात के हमसफ़र