Wednesday, October 12, 2011

रात के हमसफ़र

सपने कितने अजीब होते हैं ...कई बार तो  जहन से वो निकलते ही नहीं ...पीछा करते रहते है . मै उनमें उलझी उन अनजानी , अबूझ बातों को सुलझाने कि कोशिश करती रहती हूँ . आज सुबह भी इसी अहसास के साथ उठी ....ना जाने ऐसा की छुपा था उस सपने में...बहुत दिन हुई कुछ ऐसे सपने देखे जिन्होंने मुझे आने वाले पलों का अहसास करवाया था .. आज जो देखा क्या वो हो सकता है ??? पर ऐसा क्यों होगा ? कैसे होगा ?
   शरद पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ मेरी खिड़की पे आके बैठ गया....... मेरा वो बड़ा सा कमरा जिसमे जरूरत कि हर चीज़  करीने से लगी ... ज्यादा सामान नहीं ...मुझे खाली खाली सा कमरा अच्छा लगता है ... खिड़की से झांकता चाँद मेरे पूरे कमरे मे अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है ....मुझे उसके साथ बातें करना बहुत अच्छा लगता है .... वो बातें जिन्हें कोई सुन नहीं सकता ...बरसों से बस हम दोनों कि गुप चुप चलती बातों का सिलसिला निरंतर बहता ही रहता है .... कभी कभी ऐसा भी हुआ कि मै वो मेरे पास आया पर मै उसे समय  ही नहीं दे पाई .. वो मुझसे नाराज़ नहीं हुआ कभी भी ... कभी दरख्तों के नीचे छनती हुई चांदनी मे सूखे हुई पत्तों के ढेर पे बैठकर ना जाने कितनी बाते करती रही मै... कभी सर्द मौसम में,खुद को गर्म कपड़ों में लपेट बाहर कुर्सी या बरामदे कि सीढ़ियों पे , पिलर पे पीठ टिकाये घंटो प्रकृति को निहारते ....समय का पता ही नहीं चलता ... जब वो मेरी मुडेर पे आके मुझे आवाज़ देता तो लगता है  बस अब कोई भी मुझे आवाज़ ना दे .... रात को पेड़ कि शाख पे बैठा वो मुझे चिढाता है ..जी करता है हाथ बढा उसे मुट्ठी मै कैद कर लूं...

  कल रात भी  वो  मेरे कमरे कि खिड़की पे आके बैठ गया ... उसकी दूधिया चांदनी में....  सब कुछ निखर गया .... एक अजीब सी मदहोशी छाने लगी ..मेरे कमरे कि हर चीज़ उसके स्पर्श से नव योवना कि तरह निखर गयी . . ..मै दिन भर के उबाऊ कामों से निपट ... उबाऊ तो शायद इतने नहीं जितने कि रोज़ रोज़ वही करने से नीरस हो गए ...वही चेहरे , वही बाते, वही शिकवे शिकायतें ... वही मेरा उनको देखना , सुन ना , चेहरे पे मुस्कान लाकर दिमाग का वही फिर से सोचना क्यों ????? मेरे अभयस्त हाथों से हर जरूरी काम का होना ...फिर  वही नीरसता ... ...
  कमरे का दरवाज़ा बंद कर मै अपने बिस्तर पे आ लेटती हूँ .... आँखों को बंद कर उसे महसूस करती हूँ ....उसकी कोमल किरणे मेरे हर अंग को स्पर्श करती है और मुझे मदहोशी छाने लगती है ..लगता है जैसे प्रियतम ने छू लिया हो ...मै सपने देखती हूँ खुली आँखों से ...कभी देखती हूँ चांदनी रात मे , मै और वो किसी समुन्दर के किनारे रेत मे नंगे पाँव चल कदमी कर रहें है .. लहरें बार बार आकर हमें छू जाती है और हम एक दूसरे मे खोये से ... समय बीत ता जाता है , कभी छत पे सफ़ेद चादरों मे लिपटे हुए एक दूसरे कि बाहों मे खोये हुए से ...   ना जाने कब नींद  के आगोश मे समां जाती हूँ .... अचानक लगता है कुछ  अजीब सा अहसास है ..मै जानने कि कोशिश करती हूँ ...
 लगता है मेरी कोख मेचाँद का एक कतरा है .... नहीं पर ऐसा कैसे हो सकता है ???? नहीं !!! हो ही नहीं सकता ..पर कुछ तो है... ओह  अब क्या होगा ??? शायद कभी मैंने उसे इस रूप मे चाहा  हो कि उसका एक अंश मेरी कोख मे भी हो ... पर अब ????ठक्क! ठक्क !   कैसे ??? ठक्क ! ठक्क ! ये मैंने क्या कर दिया ??? ठक्क... ठक्क .. पर कैसे  हो सकता है ??? ठक्क ! ठक्क ! दिमाग पे  ठक्क ! !!!
सिर भारी हो गया . सांस रुकने लगी .. आँख खुल गयी .... देखा कमरे मे अब चांदनी नहीं थी .. खिड़की के बाहर रौशनी नज़र आ रही थी ..पानी के कुछ घूँट  पी ... धीमे धीमे क़दमों  से चल खिड़की तक आई अपने प्रियतम को विदा करने ... दूर आसमान पे वो अब भी चमक रहा था ... कुछ उदास ...उसकी चमक धूमिल सी हो गयी थी ... थकी थकी आँखों से मै उसे कुछ पल निहारती रही ... हम दोनों को ही जैसे एक ही दर्द था ..... हम दोनों ही इस सफ़र मे अकेले ही थे ..... हमें अपने प्रियतम कि तलाश जो थी ...हम दोनों हमसफ़र जो थे  रात भर के .....
  रात के हमसफ़र