Saturday, September 17, 2011

स्वपन जो मैंने देखा

स्वपन जो मैंने देखा ????? .....सोचती हूँ कभी देखा भी है मैंने .. या कभी सोचा भी देखने के बारे मे ..... शायद सोचा हो .अब तो याद भी नहीं ... आपने आज पूछा तो मुझे सोचने पे मजबूर कर दिया .....मै  एक औरत हूँ ! तो क्या मै  सच मे सपने देख सकती हूँ  ? ....मै  औरत हूँ इस बात का अहसास  तो मुझे जनम  से ही करा दिया गया ...जो समय के साथ साथ और भी तीव्रतर होता गया .... कई बार सोचती हूँ  पितामह भीष्म की तरह शायद मे भी अभिशापित हूँ ... तभी तो एक बालिका के रूप मे मेरा जनम हुआ ... 

आज सोचने लगी तो पूरा जीवन एक चलचित्र की तरह मेरे आँखों के आगे आ गया ..... मुझे याद नहीं मेरे जनम पे किसी ने दुख व्यक्त किया या ख़ुशी !!!  याद है माँ के साथ अपने छोटे छोटे हाथों से घर के कामों में  हाथ बटाती ..और दिन में कई बार माँ के मुह से सुनती, " बेटा तू तो पराया धन है... कल तुझे दूसरे घर जाना है ...वहां हमारी लाज रखना ....और भी ना जाने क्या क्या ...." माँ ने मुझे बचपन से ही पराया कर दिया ! 

ससुराल ! ससुराल ! दिन मै कई बार इस शब्द को सुनती और सोचती ससुराल  कितनी भयानक होती है, तो मुझे वहां जाना ही क्यों ? माँ- बापू मुझे वहां क्यों भेजना चाहते है ?क्यों हर लड़की को ससुराल  जाना पड़ता है ? और भी ना जाने कितने मासूम से सवाल मेरे जहन  मै उठते.....कुछ का जबाब तो माँ दे देती और कुछ पे झिड़क देती .... "मुझे हर काम सलीके से करना है ... ज्यादा हँसना नहीं है ..ज्यादा  बोलना नहीं ..कपड़े  ऐसे पहनो ... ऐसे बैठो , ऐसे उठो ..बड़ो से कुछ नहीं कहना सिर्फ सुन ना है .. जो कहे वो करना है  और भी ना जाने क्या क्या ..... भले घर की लड़कियां ये नहीं करती ...वो नहीं करती .. ओफ्फ्फ्फ़!!!!!   द्रोपदी के चीर की तरह ये सिलसिला  बढता ही गया..  पर मुझे तो श्री कृष्ण   भी बचाने   नहीं आये  !!!" आज आपने पूछा तो ख्याल आया की मै शायद सपने देखना ही नहीं चाहती थी, कोई इतने भयानक सपने क्यों देखे भला ??? सपने तो सुन्दर होते हैं  ना !!!!

समय का पहिया घूमता  रहा और मै भी बड़ी हो गयी घर के कामों को सलीके से करने लगी ... आस पास के लोग मेरी सुघड़ता के कायल थे पर माँ ....उसे कुछ ना कुछ  कमी नज़र आ ही जाती . एक दिन वो दिन भी आ गया जिस दिन के लिए मुझे पाला पोषा गया था ... पराया धन ... अपने घर जाना था मुझे ... आज याद नहीं पर ... मै कुछ पल लिए खुश जरूर हुई होंगी ...क्योकि सब होते है ! पर अन्दर का वो डर मुझ पे हावी होने लगता ... माँ बापू को देखती ..उनके चेहरे पे अनजानी सी लकीरें खिची नज़र आती मुझे .माँ का वो मेरे चेहरे को देखना और प्यार से सिर पे हाथ फेरना... बापू का भी यही हाल .. ये सब तो मैंने कभी देखा ही  नहीं था  , मुझे बहुत   ही अजीब  लगता... .  बलि  के लिए जो बकरा रखा जाता है उसकी याद आने लगती , उसे भी तो खूब खिलाया पिलाया जाता है ...फिर खूब फूल माला से सजाया जाता है ! मुझे अपनी भी वही स्थिति  लगती  भला कैसे कोई सपने देखता ???

ऐसा नहीं की कभी कोई सपना चुपके से मेरे  अंतर्मन  की सीमा नहीं लांघता ...पर मै जल्दी से उसे  भगा  देती क्योकि मै एक औरत हूँ और सपने देखने का मुझे कोई अधिकार नहीं .. ये बात मैंने अपने माँ से भलीभांति समझी  हुई थी ... मै एक भले घर की लड़की हूँ और भले घर कीलड़कियां  सपने नहीं देखती ... वो तो सलीके से रहती है एक बेज़ुबान  कठपुतली की तरह ....

ज़िन्दगी का दूसरा पड़ाव  डरते सहमते मैंने उसमे कदम रखा ....वहां भी कोई सपना नहीं देख पाई ..घर गृहस्थी   की चक्की मै ऐसा पिसी  की अपनी भी सुध नहीं रही ... कब सुबह हुई कब शाम .. और कब रात ..ये सब तो मुझे याद रहता,  पर मै भी हूँ ये कभी  याद ही नहीं रह   पाया ... आज सोचती हूँ अच्छा ही था याद नहीं रहा ... वरना एक और दुःख पाल  लेती ... वैसे मै इस सुख दुःख की सीमाओं से ऊपर उठ चुकी ... ये सब तो मुझे महसूस करने का कभी किसी ने हक ही नहीं दिया ..और मै  कभी ले भी   नहीं  पाई ... जब भी सोचने की जरूरत की ...सबने ये कह समझा दिया तुम सोचा मत करो, काम करो ..तुम्हें  चाहिए क्या ??? सब कुछ तो तुम्हें  मिल रहा है .. एक औरत को और क्या चाहिए ???

आज मैंने हिम्मत कर कुछ सोचने  की जरूरत की तो मालूम हुआ की मै सोच भी सकती हूँ ... मेरे भी कुछ सवाल हैं ज़िन्दगी से ...और  खुद से भी !!  मै देख सकती हूँ  अपनी नज़र से आज ये  महसूस हुआ .... मुझे तो आज तक वही नज़र आया जो और लोगो ने मुझे दिखाया.... गन्दा घर , झूठे बर्तन , गंदे कपड़े ,गन्दा सहन ,मकड़ी  के जाले..... मेरे    का मकड़जाल   तो ना किसी ने देखा और ना देखने की कोशिश  ही करी ..और मै  !  जो मुझे दिखाते रहें मै अन्धो की तरह देखती रही उनकी नज़र से .. ऐसा नहीं की मेरे सामने फूल नहीं खिले ....पत्ते नहीं झरे ..आम नहीं बोराए ...मेघ नहीं छाये ..सब कुछ  होता रहा पर मै ही उसको नकारती रही .... आज सोचा तो लगा की मुझे रजनीगंधा बहुत अच्छे लगते हैं उनकी खुशबू .... अरे मुझे तो आज तक पता ही नहीं था .....मुझे सुगम संगीत भी पसंद है ..... मुझे चांदनी राते भी अच्छी लगती है .........चाँद तो कई बार देखा मैंने  पर उसकी ख़ूबसूरती को महसूस नहीं किया ...उसकी चांदनी मे नहाई , निखरी परकृति को आज जैसे पहली बार मेरे अंतर्मन ने करीब से महसूस किया हो ....

मै अपने नाजुक से कंधो पे दो परिवारों की मान मर्यादा का बोझ के तले पिसती रही और मेरी एक उम्र गुज़र गयी ...और मुझे अहसास भी नहीं हुआ .सोचती हूँ तो लगता है माँ ने जिस घर के लिए पराया किया था क्या वो वाकई मेरा है ???? वो सबका है सिवाय मेरे ... मेरे हिस्से में   तो जिम्मेदारियां ही हैं उसके बदले रोटी कपड़ा और मकान .. सीधा सा हिसाब किताब .....

शीशे के आगे जाके खुद को देखा तो लगा आज बरसों से ज़मी  हुई गर्द  को साफ़ करने का वक़्त आ गया ......पर सपना देखना अब भी मेरे बस मै नहीं .....एक अहम् सवाल मेरे आगे आ खड़ा हुआ की सपना किसका देखूं ????

अपने होने पे मुझे पहली बार अफ़सोस हुआ ......मैंने अपने चारों और जो संसार रचा हुआ है उसमे मेरी क्या और कितनी अहमियत है ??? ये प्रश्न आज मेरे सामने पहली बार आया ? मुझे पहली बार ये अहसास हुआ की मेरे चारों और एक मृग मरीचिका है और मै उसको सत्य समझ अपने ही भरम मै जी रही हूँ..... इतना आसन नहीं खुद को वर्षों के पाले हुई भरम से बाहर निकलना मै ये जानती हूँ पर अब तक तो भरम का ही पता नहीं था ....

सोचती हूँ .....ये शुभ काम उम्र के इस पड़ाव मै ही कर डालूँ ... कहते है ना जब जागो तभी सवेरा .... तो मै स्वपन  देखना शुरू करती हूँ .... जागी आँखों के साथ .... यही मेरा सपना है आज से की मै भी सपने देखूँगी अपने अस्तित्व को जानने  का ...खुद को पहचानने का . इस सफर मे मै कितना कामयाब हो पाऊंगी मै नहीं जानती मगर मै इतना जानती हूँ कि अब मै अपने बढे हुई कदम पीछे नहीं करूंगी और सपने देखना नहीं छोडूंगी ........